वह क्षण जैसे जैसे नजदीक आ रहा था, दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। मन में तरह तरह के विचार उमड़ने घुमड़ने लगे। कर पाऊंगा या नहीं। कहीं हमारी वजह से पूरे किए धरे पर पानी न फिर जाए। पहली बार नाट्य प्रस्तुति में छोटी सी सही एक भूमिका निभानी थी। प्रैक्टिस की थी पर मंचीय प्रस्तुति आसान नहीं होती। कहना सरल होता है पर करना कठिन। ये अभिव्यक्ति है जानेमाने पत्रकार, साहित्यकार गौरव अवस्थी (Gaurav Awasthi) की, जिन्होंने रंगकर्मी के रूप में अपनी पहली प्रस्तुति दी।
बहरहाल, जिनके नाम की प्रस्तुति (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी) थी, मन ही मन उन्हीं को याद करके ताकत बटोरी और कूद पड़े गंगा में। रपट पड़े..तो कतई नहीं कहेंगे। ओखली में सिर खुद जो डाला था। जैसे-तैसे अपनी तय एक ग्रामीण की भूमिका निभाई। कितनी अच्छी, कितनी खराब, यह तो दर्शक ही जानें या बताएं पर साथी कलाकार तो नंबर बढ़ा-चढ़ाकर दे रहे थे। अपने तो अपनाइयत दिखाएंगे ही। इसमें कुछ नया न गलत। एक बात तो सौ फीसदी सच है। नया नया होता है। उसका असर पड़ेगा ही। उम्र और अनुभव कितना ही हो?
यह सच है कि जीवन में कभी जो सोचा नहीं था, वह घटित होते जा रहा है। वह पत्रकारिता हो। आचार्य स्मृति संरक्षण अभियान हो या अब रंगकर्म। बस संतोष यही है कि शुरुआत आचार्यश्री के जीवन वृत्त पर केंद्रित नाटक ‘हमारे आचार्य जी’ से ही हुई। वही आचार्य जी, जिनने जीवन की दिशा बदल दी। दृष्टि बदल दी। दिशा-दृष्टि बदलेगी तो दशा अपने आप बदलेगी ही।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान के रजत पर्व मना रहे राष्ट्रीय स्मारक समिति से जुड़े सभी साथियों को इस बात पर संतोष होना चाहिए कि भोपाल के आचार्य- सप्रे युगीन प्रवृत्तियों और सरोकार विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन में जिनने भी विद्वान साहित्यकारों- पत्रकारों ने हमारे आचार्य जी नाटक देखा, उनका यह मत रहा कि महान साहित्यकारों के साहित्य पर नाटकों का मंचन तो हुआ।
खूब हुआ पर किसी साहित्यकार के जीवन पर खेला गया यह नाटक पहली बार ही देखा। अब विद्वानों की बात सच है या ग़लत, इसे प्रमाणित तो दूसरे विद्वान ही करेंगे। फिलहाल, हम तब तक अपने मुंह मियां मिट्ठू बने रहते हैं।
- गौरव अवस्थी