जिस तरह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती को प्रतिष्ठा दिलाई, उसी तरह होश वाले जोश, जुनून और अपने असीमित ज्ञान की बदौलत सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी मतवाला को लोकपिय बनाया| ‘द्विवेदी पथ’ का अनुसरण करते हुए निराला जी ने भी मतवाला में छद्म नामों से कविताएं, लेख और समालोचनाएं लिखकर आधुनिक हिंदी का मार्ग प्रशस्त किया| आचार्य द्विवेदी ने खड़ी बोली हिंदी को प्रतिष्ठापित करने के लिए 14 छद्म नाम से रचनाएं लिखीं और निराला जी ने 3-4 छद्म नाम से लेख, कविता और समालोचनाएं लिखीं।
समन्वय का संपादन छोड़ने के बाद निरालाजी मतवाला मंडल से जुड़े। मतवाला साप्ताहिक पत्र 26 अगस्त 1923 को कोलकाता से प्रकाशित होना शुरू हुआ| इसके प्रकाशक और संपादक महादेव सेठ थे| मतवाला मंडल में सेठ जी के साथ-साथ मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव निराला जी और आचार्य शिवपूजन सहाय शामिल थे| निराला जी की काव्य साधना का महत्वपूर्ण बिंदु मतवाला ही बना मतवाला के प्रथम अंक के मुख्य पृष्ठ पर दो कविताएं छपी| इसमें एक ‘रक्षाबंधन’ के रचयिता का नाम ‘पुराने महारथी’ और दूसरी कविता के रचयिता का नाम निराला छपा था| माना जाता है कि दोनों कविताएं निराला जी ने ही लिखी थीं, तब उनका नाम निराला नहीं था| सरस्वती की समालोचना निराला जी ने मतवाला में ‘गरगज सिंह वर्मा साहित्य शार्दूल’ छद्म नाम से प्रकाशित की थीं| इसके अलावा उन्होंने जनाब अली, हथियार छद्म नाम से भी लिखा|
आचार्य शिवपूजन सहाय लिखते हैं कि जिस तरह का सम्मान आचार्य द्विवेदी को बाबू चिंतामणि घोष से प्राप्त हुआ वैसा ही सम्मान निराला जी को महादेव प्रसाद सेठ से प्राप्त हुआ| मतवाला के प्रकाशन का एक साल पूरा होने पर महादेव सेठ ने आत्मकथन में स्वीकार किया-‘मतवाला ने जो अपूर्व युगांतर उपस्थित किया, उसमें बंधुवर निराला का पूरा हाथ रहा| उनकी कृतियों ने क्रांति की लहर उमड़ाई| उनकी शैली ने शैल श्रृंखला तोड़कर प्रतिभा की प्रखर धारा बहाई| उनकी दी हुई विशेषता के बल पर मतवाला सर्वसाधारण के समक्ष योग परिवर्तन का दृश्य उपस्थित कर सका|’
टैगोर की टक्कर में ‘निराला’ नाम ही जंचा
निराला अकस्मात निराला नहीं बने| इसके पीछे उनकी कठोर साधना परिलक्षित होती है| निराला जी के कवि जीवन का आरंभ 1920 से हुआ| बसंत पर उन्होंने अपने बचपन के सुर्ज कुमार तेवारी नाम से पहला गीत जननी जन्मभूमि लिखा| इस गीत का एक बंद यूं है-
वन्दू मैं अमल कमल
चिर सेवित चरण युगल
शोभामय शांति निलय पाप ताप हारी
मुक्त बंध घनानंद मुद मंगलकारी
सुर्ज कुमार नाम उन्हें पसंद नहीं आया तो फिर नाम सूर्यकुमार तेवारी रखा| यह नाम भी उन्हें बंकिम चंद्र चटर्जी और टैगोर के टक्कर का नहीं लगा| तब उन्होंने अपना नाम सूर्यकांत त्रिपाठी रख लिया| मतवाला के 98 अंक में ‘जुही की कली’ नामक कविता प्रकाशित हुई| उसमें उनका पूरा नाम पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ पहली बार छपा| इसके पहले मतवाला में वह केवल निराला नाम से कई कविताएं खुद छाप चुके थे| बाद में वह निराला उपनाम से प्रसिद्ध होते चले गए और आज दुनिया उन्हें सूर्यकांत त्रिपाठी से कम निराला नाम से ज्यादा जानती है| निराला जी की रचनाओं का पहला संग्रह महादेव सेठ ने ही अनामिका नाम से निकाला था| अनामिका संग्रह की भूमिका में निराला जी ने स्वीकार किया है कि मेरा उपनाम निराला मतवाला के ही अनुप्रास पर आया|
बेटी के विवाह से तोड़ा अंधविश्वास और रूढ़ियां
बेटी सरोज के निधन के बाद निराला जी द्वारा लिखी गई सरोज स्मृति कविता का रचनाकाल 1936 है| बेटी के असामयिक निधन से पिता के दिल में उपजे दर्द से भरा यह गीत दुनिया का महानतम शोकगीत माना जाता है| इसमें कठोर जीवन की गाथा है और प्रिय पुत्री के स्मृति चित्र| साहित्य के हर विद्यार्थी को सरोज स्मृति नामक यह कविता रटी ही होगी लेकिन याद करने की बात यह है कि निराला जी ने रूढ़ियों और अंधविश्वास को तोड़कर सरोज के हाथ अपने पैतृक गांव गढाकोला में पीले किए थे| बिना दान-दहेज के| उन दिनों कि ब्राह्मणों में बिना दहेज की शादी की कल्पना ही बेमानी थी| वह महीना सावन था और ‘शुक्र’ डूबा था| सब जानते हैं कि ऐसे दिनों विवाह तो दूर कोई शुभ काम हिंदू परिवारों में नहीं होता| विद्रोही निराला जी ने इस रूढ़ि को तोड़ा| बैंड बाजा न बारात और न ही मंडप| पड़ोसी गांव के राधा रमन बाजपेई आदि ने मंडप छाया| पंडित की आन कहानी पर निराला जी ने खुद मंत्र भी पढ़े| निराला जी चाहते थे कि हिंदू खासकर ब्राह्मण इन कुप्रथाओं से बाहर निकले|
- गौरव अवस्थी
रायबरेली (उ. प्र)
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