Friday, November 22, 2024
HomeINDIASanskritosav: भौगोलिक सीमाओं से परे राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा...

Sanskritosav: भौगोलिक सीमाओं से परे राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है संस्कृत

Sanskritosav: संस्कृत भाषा एक संचार साधन के रूप में जन्म लेकर बढती आयी है। हर एक भाषा का हजारों वर्ष का इतिहास देखने को मिलता है। दुनिया में हजारों भाषाएँ हैं, उनमें कई भाषाओं के लिए लिपि भी नहीं है, ऐसी भाषाएँ केवल संभाषण के रूप में चलती आयी हैं। संस्कृत अत्यंत प्राचीन भाषा मानी जाती है।

यह भाषा भगवान के मुँह से निकली देवभाषा, गीर्वाण भाषा कही जाती है। उसकी प्राचीनता के संबंध में काल निश्चित करना संभव न होने पर भी प्राप्त जानकारी के अनुसार पाश्चात्यों ने ई.पू. 1500 तक इसकी प्राचीनता का अंदाजा लगाया है। यह भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। यह मात्र प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और वैज्ञानिक भी है और कई भाषाओं के लिए मातृस्वरूप है। हिंदी भाषा तथा कन्नड,तेलुगु, मलयालम आदि क्षेत्रीय भाषाओं को समग्र रूप से जानने के लिए संस्कृत का ज्ञान अत्यंत पूरक है।

अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लिए उस भौगोलिक प्रदेश की पृष्ठ्भूमि रहती है। लेकिन संस्कृत ऐसी भौगोलिक सीमाओं से परे राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर की भाषा भी है। उसमें निहित वेद, दर्शन, रामायण, महाभारत, शाकुंतल आदि ग्रंथ वैश्विक स्तर पर पूजनीय माने जाते हैं। इतना ही नहीं, संस्कृत भाषा से अनूदित साहित्य से क्षेत्रीय भाषाएँ समृद्ध हुई हैं।
संस्कृत भाषा और साहित्य ने विश्व को महत्वपूर्ण योगदान दिया है। संस्कृत भाषा व साहित्य में कला और विज्ञान से संबंधित विशिष्ट बातों का उल्लेख है। सरल शब्दों में कला प्रतिभाप्रधान है।

प्राचीन भारत में हर एक ज्ञान शाखा को और कला को ब्रह्मज्ञान पाने का पूरक मार्ग माना जाता था। कई संस्कृत ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 होने से और रामायण, महाभारत, पुराणादि ग्रंथ, वात्सायन कामसूत्र में भी 64 कलाओं का उल्लेख है। कंसवध के बाद सांदीपनी महर्षि के पास गुरुकुल में विद्या सीखने जाने पर श्री कृष्ण ने केवल 64 दिनों में 64 कलाएँ, 14 विद्याएँ सीखीं, ऐसा उल्लेख है। ऐसे ही काव्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र, गणित, न्यायालय के निर्णय, आयुर्वेद और प्रस्तुत समय में प्रसिद्ध संस्थाओं के ध्येयवाक्यों को भी संस्कृत में देख सकते हैं।

संस्कृत और काव्य : कवि की कृति को ‘काव्य’ कहते हैं। लेकिन लिखनेवाला हर कोई कवि नहीं कहलाता। लिखा हुआ सब कुछ काव्य नहीं हो सकता। कवियों में पुराने जन्मों और अब के जन्म के उत्तम संस्कार, श्रेष्ठ गुरुओं के पास अध्ययन, उदात्त लोगों का निरंतर मार्गदर्शन, प्रवास, हर दिन पठन, चिंतन आदि होने चाहिए। तब जाकर वह कवि, महाकवि बन सकता है।

वाल्मीकी जी दुनिया के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके द्वारा संसार को समर्पित रामायण ‘आदिकाव्य’ नाम से प्रसिद्ध है। सांकेतिक रूप से पाँच और कृतियाँ संस्कृत में महाकाव्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे हैं – महाकवि कालिदास विरचित रघुवंश और कुमारसंभव, भारवी द्वारा रचित किरातार्जुनीय, माघ का शिशुपालवध और श्री हर्ष विरचित नैषधीयचरित।

विश्वप्रसिद्ध पंचतंत्र के रचयिता विष्णुशर्मा, समकालीन कवि नागपुर के डा. श्रीधरभास्कर वर्णेकर द्वारा विरचित शिवराज्योदयम, ज्ञानपीठ पुरस्कृत संस्कृत महाकवि डा. सत्यव्रतशास्त्री विरचित रामकीर्तिमहाकाव्यम, बृहत्तर भारतम ऐसे कई महाकाव्य उल्लेखयोग्य हैं। राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत मैसूर के विद्वान डा. एच,वी.नागराजराव जी भारत के सुप्रसिद्ध संस्कृत महाकवि हैं, जिनके द्वारा रचित दसों शतक प्रसिद्ध हैं।

संस्कृत और विज्ञान: संस्कृतविज्ञान में अत्यंत बडी मात्रा में उपलब्ध खगोलशास्त्र की ज्ञानराशि हमारे प्राचीनकाल से हमारे साथ ही है। यह अवधि ई.पू.6000 ई के ऋग्वेद के मंत्र से लेकर 14 वें दशक के सायणाचार्य जी की व्याख्या तक पसरी हुई है। वेदकाल के बाद ख्यात ऋषिसदृश कई प्रसिद्ध वैज्ञानिकों को हम देख सकते हैं। प्रमुख रूप से ईसा की 5 वीं सदी का आर्यभट, 7 वीं सदी का भास्कर-1, ईसा की 12 वीं सदी का भास्कर-2 आदि। ऐसा बताया जाता है कि सूर्यदेव के प्रकाश की किरणों की गति को 19वीं सदी के पाश्चात्य वैज्ञानिक मैखालसन और मार्ले नामक व्यक्तियों ने अन्वेषित किया । लेकिन प्राचीन भारत के वैज्ञानिक महर्षियों ने ई.पू. 6000 साल से पहले ही इसका अन्वेषण किया था, यह गर्व की बात है।

संस्कृत और अर्थशास्त्र: अर्थशास्त्र अथर्ववेद का उपवेद है। यह राजनीति से संबंधित कई बातों की जानकारी देता है। आचार्य विष्णुगुप्त अर्थशास्त्र के प्रणेता है। चाणक्य, कौटिल्य, आदि उनके उपनाम हैं| जीवन निर्वाह के लिए जो आवश्यक है उसे कौटिल्य ने अर्थ कहा है।

इस अर्थ के लाभ और संरक्षण के क्रम को अर्थशास्त्र विस्तृत रूप से जानकारी देता है। चाणक्य ने राज्य की रक्षा, किले, चार सांप्रदायिक विद्याएँ, चार राजकीय उपाय, छः प्रकार के विदेश नीति, मंडल व्यवस्था, राजा के दंडनाधिकार, मंत्रि परिषद की रचना, राजा द्वारा अपने पुत्र, पत्नी, बंधुओं की परीक्षा करने का विधान, राजा की मृत्यु पर मंत्री का कार्यभार, शत्रुओं का सामना करने के तंत्र, रक्षा के उपाय, गूढचर्या, विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्य, शिक्षा विधान आदि विचारों को कौटिल्य ने विस्तार से समझाया है। पहली बार कौटिल्य के अर्थशास्त्र ग्रंथ का संपादन करके मैसूर के रुद्रपट्टण के डा.आर.शामशास्त्री जी ने ग्रंथरूप में प्रकाशित किया। 1909 में इसे दुनिया में पहली बार मुद्रित करके प्रकाशित करने का गर्व मैसूर के प्राच्यविद्यासंशोधनालय का है।

संस्कृत और गणित : एक समय था, जब गणित को संस्कृत भाषा में पढाया जाता था। आज इसे सुनकर आश्चर्य होता है। किसी भी विषय को लय के द्वारा समझाने से मन को न केवल आह्लाद मिलता है, बल्कि वह ज्यादा समय तक मन में टिक भी जाता है, यह अनुभवजन्य सत्य है। इसलिए गणित जैसे कठिन विषय को भी लय, छ्न्दोबद्ध पदों के द्वारा न केवल सुस्पष्ट रूप से बल्कि सुलभ रीति से समझाया जाता था। हमारे स्कूलों-कालेजों में सिखाये जा रहे कई गणित प्रमेय पहले संस्कृत साहित्य में मौजूद थे, यह बात आज भी बहुत लोग नहीं जानते।

इतिहास यह बताता है कि आज प्रौढशाला में सिखाया जानेवाला ‘पैथागोरस प्रमेय’ ईसा के 500 वर्षों से पहले ही अन्वेषित था। बताया जाता है कि उससे भी पहले ई.पू.600 सालों से पूर्व इस प्रमेय को संस्कृत के शुल्बसूत्रों में बताया गया था। शुल्ब सूत्र अपस्तंब, बोधायन, मानन, कात्यायन आदि पंडितों द्वारा बताया गया था। विज्ञान को न्यूटन से कई शतक पहले हमारे यहाँ प्रतिपादित करनेवाले थे द्वितीय भास्कराचार्य, जिनको हम कैल्कुलस के पितामह कह सकते हैं। त्रिकोन मति के विकास के लिए कारणीभूत प्रथम आर्यभट, द्वितीय आर्यभट, ब्रह्मगुप्त तथा माधव आदि का स्मरण करना अत्यंत आवश्यक है।

संस्कृत और न्यायालय: आज न्यायालयों में कई संदर्भों में वकालत करते समय साक्षी को महत्व दिया जाता है। हर कोई भरोसेमंद साक्षी नहीं बन सकता। उसके लिए कई मानदण्ड हैं। जो साक्षी देता है, उसे सत्य ही बोलना है, वह भरोसेमंद व्यक्ति होना चाहिए, आत्मविश्वासी होना चाहिए, निर्भीत होना चाहिए ऐसे गुणों का उल्लेख किया जा सकता है। इसे कई हजार साल पहले हमारे संस्कृत ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। याज्ञवल्क्य स्मृति में आनेवाले व्यवहाराध्याय में साक्षी के गुणधर्मों की विवेचना की गई है। इतना ही नहीं, याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रसिद्ध व्याख्याता विज्ञानेश्वर लिखित मिताक्षर नामक ग्रंथ का अनुसरण करके ही सर्वोच्च न्यायालय में कई निर्णय प्रकट होते हैं, यह ध्यान देने योग्य बात है।

`संस्कृत और आयुर्वेद : आयुर्वेद मात्र भारतीयों को नहीं, विदेशियों को भी अपनी ओर खींचनेवाली विशिष्ट पद्धति है। आयु यानी आयुष्य, वेद यानी विज्ञान। अपनी संपूर्ण जीवतावधि को स्वस्थ होकर बिताने के लिए पालन किए जानेवाले विधानों के निरूपण के बारे में आयुर्वेद में महत्व दिया गया है। कई हजार साल पहले भूमि पर लोगों में रोग दिखाई देने पर ऋषिमुनिगण भगवान की शरण में जाते हैं।

बताया जाता है कि तब ब्रह्मदेव ने आयुर्वेद शास्त्र का विवरण दिया। गुरु शिष्य परंपरा में कई ऋषियों ने इसके बारे में अध्ययन करके ग्रंथों की रचना की है। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, वाग्भट के ग्रंथ, प्राचीन तथा प्रमुख आयुर्वेद विज्ञान के ग्रंथ माने जाते हैं। आयुर्वेद ग्रंथों की रचना संस्कृत में हुई है। संस्कृत से विविध भाषाओं में अनूदित ग्रंथ अध्ययन के लिए उपलब्ध हैं। भाषांतर ग्रंथों से आयुर्वेद का परिचय मिलता है, फिर भी विषय के यथावत ग्रहण के लिए संस्कृत का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है।

संस्कृत और पत्रिका: ‘सुधर्मा’ संस्कृत की एकमात्र दिन पत्रिका है। 1970 के जुलाई 15 को पंडित के.एन.वरदराज अय्यंगार जी ने मैसूर के श्रीमन्महाराजा संस्कृत पाठशाला की श्री गणपति सन्निधि में पत्रिका आरंभ की। वे खुद उस पत्रिका के संपादक तथा प्रकाशक थे। वे सतत 20 साल संस्कृत पत्रिका का प्रकाशन करके भाषा प्रेमियों की प्रशंसा के पात्र बने। तब पत्रिका का मूल्य मात्र पाँच पैसे थे। इतना ही नहीं, 1976 में केंद्र सरकार ने आकाशवाणी में संस्कृतवार्ता का प्रसारण आरंभ किया। इसके कारणीभूत थे श्री वरदराज अय्यंगार्।

श्री के.वरदराज अय्यंगार जी के निधन के बाद उनके पुत्र विद्वान श्री के.वी.संपतकुमार जी ने संस्कृत भाषा के प्रचार और प्रसार को ‘सुधर्मा’ का ध्येयोद्देश मानते हुए कई उतार चढाव के बाद भी पत्रिका चलाते रहे। सारे विश्व में ‘सुधर्मा’ संस्कृत दिनपत्रिका के रूप में सफल हुई तथा उसने दुनिया को कई लेखकों का परिचय कराया। विद्वानों द्वारा रचित कई पुस्तकों का ‘सुधर्मा’ ने प्रकाशित किया है। संस्कृत भाषा से संबंधित पुस्तक मेला का आयोजन करके संस्कृत भाषा और कई प्रकाशकों को प्रोत्साहन दे रहा है।

2019 में पत्रिका ने सुवर्ण वर्षोत्सव का आचरण किया , यह हर्ष का विषय है। 2020 में ‘सुधर्मा’ पत्रिका के संपादक श्री के वी संपतकुमार तथा श्रीमति जयलक्ष्मी जी को केंद्र सरकार ने ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया है। 2021 में श्री संपतकुमार जी के निधन के बाद उनकी पत्नी जयलक्ष्मी जी ने आर्थिक संकष्टों के बावजूद भी पत्रिका के प्रसारण जारी रखा है, यह खुशी की बात होने पर भी पत्रिका के प्रसारण के लिए संस्कृत प्रेमियों की सहायता अत्यंत आवश्यक है।

आज के दिनों में विद्यार्थी तथा इतर भाषाप्रेमी संस्कृत सीखने की ओर अत्यंत रुचि से प्रवृत्त हो रहे हैं। विदेशों में भी संस्कृत के बारे में आदर की भावना व्यक्त होकर उसको सीखने की तरफ लोगों का मुडना हम भारतीयों के लिए गर्व का विषय है। इस दिशा में सरकार देश के सभी विद्यालय, शोध संस्थान और निजी संघ-संस्थानों में भी श्रावण पूर्णिमा के संदर्भ में पिछले तीन दिन और अगले तीन दिन कुल मिलाकर एक सप्ताह भर संस्कृत सप्ताह मनाते हुए, इस सप्ताह में संस्कृत भाषा सीखने के लिए प्रोत्साहन दे रही है, यह हर्ष का विषय है।

संस्कृतोत्सव:
मूल कन्नड लेखक – नं. श्रीकंठकुमार
हिंदी अनुवाद- डॉ. करुणालक्ष्मी. के. एस.

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest News

Recent Comments